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बेचैन करने वाली फ़िल्म
29/01/2024 को मैंने पुणे में लोकशाही उत्सव में फिल्म हिमोलिंफ (अदृश्य रक्त) देखा। हिमोलिंफ का मतलब है वो खून जो खून तो होता है लेकिन रक्तपात के दौरान दिखाई नहीं पड़ता। कीड़ों, चींटियों को कुचलने पर खून नहीं दिखता। चूँकि कुचलने वालों को खून नहीं दिखता इसलिए उन्हें अपने द्वारा की गई हिंसा की गंभीरता का एहसास नहीं होता और इस तरह हिंसा करने वाले बेलगाम हो जाते हैं। अमानवीयता, अत्याचार, मारपीट, हिंसा का हिंसा करने वालों पर कोई सकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ता। खुद के द्वारा बहुत बुरा बर्ताव करने का उन्हें कोई पछतावा नहीं होता। परिणामस्वरूप, वे हिंसा करने के आदेशों का आँख मूंदकर पालन करते हैं। इस प्रकार, हिंसा व्यवस्था का हिस्सा बन जाती है। है। आम लोग कीड़ेमकौड़ों की तरह कुचल दिये जाते हैं। जजों, मीडिया को लोगों का इन कुचले हुओं का खून नहीं दिखता. इतना ही नहीं समाज को भी यह नजर नहीं आता. परिणामस्वरूप, हिंसा बड़े पैमाने पर अपने पाँव पसार लेती है। उसकी मौजूदगी हर जगह होती है।
हिमोलिंफ फिल्म में हमारी व्यवस्था का हिंसक बर्ताव सच्ची घटनाओं के आधार पर दर्शाया गया है। मुंबई में बम धमाकों के बाद पुलिस ने एक शिक्षक को संदिग्ध आरोपी के तौर पर गिरफ्तार करती है। निर्दोष शिक्षक का नाम अब्दुल वाहिद है. पुलिस उसे काफी यातनाएँ देती है। वाहिद, उसके परिवार वालों और रिश्तेदारों को भी परेशान किया जाता है। वाहिद उसपर हो रहे अत्याचारों को सहता जाता है। वो शांति से सोचता और व्यवहार करता है. जेल में दूसरों की मदद करता है. कानून का अध्ययन करता है। पत्रकारिता की पढ़ाई भी करता है।
वाहिद कानूनी तरीकों से अपने खिलाफ होने वाले अत्याचारों को रोकने की कोशिश करता है। वो लंबे समय तक अन्याय सहता रहता है। अंततः वाहिद को बरी कर दिया गया। जो दोषी पाए जाते हैं उन्हें सजा दी जाती है. वाहिद निर्दोष था लेकिन फिरभी उसे तमाम यातनाओं से गुजरना पड़ता है। वो समाज को अपने साथ हुए अन्यायों और दुर्व्यवहारों से अवगत कराने के लिए “बे गुनाह क़ैदी” नामक पुस्तक लिखता है। ये किताब ही इस फिल्म का मूल आधार है.
भारत की विभिन्न जेलों में लगभग 3,60,000 कच्चे कैदी हैं। इस फिल्म को देखते समय मुझे फादर स्टेन के साथ हुए अन्याय की याद आई, जिन्हें भीमा कोरेगांव मामले में पुलिस ने हिरासत में लिया था। चूंकि वह तरल पदार्थ नहीं पी सकते थे, इसलिए उनके वकीलों ने स्ट्रॉ की मांग की। न्यायाधीश ने उन्हे वो भी देने से मना कर दिया। 80 साल की उम्र मे फादर स्टेन की जेल में मौत हो गई।
1 फरवरी, 2024 के लोकसत्ता में दिल्ली पुलिस द्वारा पांच युवकों को बिजली का झटका देने और अन्य तरहों से प्रताड़ित करने की खबरें हैं। विपक्ष के साथ उन्हे उनके संबंध होने की बात कबूल करने के लिए दिल्ली पुलिस ने उन्हें प्रताड़ित किया। उनसे 70 कोरे कागजों पर जबरन हस्ताक्षर करा लिया गया. ये बातें मनोरंजन डी., सागर शर्मा, ललित झा, अमोल शिंदे और महेश कुमावत ने अदालत को सौपे अपने लिखित दलील मे कहीं हैं।
प्रस्थापित व्यवस्था असंख्य लोगों को कीड़े-मकौड़ों और चींटियों की तरह सताती है। फिल्म में व्यवस्था के इस क्रूर अत्याचार को दर्शाया गया है. फिल्म देखते समय दिमाग में रक्त की आपूर्ति कम होने से झुनझुनी लगती सी महसूस होती है।
डॉ.रियाज़ अनवर, रोहित कोकाटे, रुचिरा जाधव, मेजर विक्रमजीत और सागर पाबले ने यादगार भूमिकाएँ की हैं। फिल्म देखते वक्त हमें ऐसा महसूस होता है कि हम एक भयानक हिंसक हकीकत देख रहे हैं. फिल्म के लेखक और निर्देशक सुदर्शन गमरे अपनी कल्पनाओं की हकीकत को साकार करने में सफल रहे हैं.
यह एक ऐसी फिल्म है जिसे अंतरराष्ट्रीय ख्याति मिलनी चाहिए। मेरा मानना है कि इस फिल्म को अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में दिखाया जाना चाहिए। फ़िल्म के सभी कलाकारों और फ़िल्म को पूरा करने के लिए काम करने वाले सभी लोगों को धन्यवाद और भविष्य के लिए शुभकामनाएँ!
– शिवाजी गायकवाड (संगमनेर)